कम जगह, कम लागत और बेहतर उत्पादन

रायपुर- क्या 120 फीट की जगह में गड्ढा बनाकर मछली पालन किया जा सकता है? सवाल थोड़ा अजीब सा लग सकता है पर अब यह हकीकत में बदलने जा रही है। कृषि विज्ञान केंद्र रायपुर के परिसर में इसे साकार होता हुआ देखा जा सकता है। प्रयोग के तौर पर किया गया फिशरीज साइंटिस्ट डॉ सामल का यह प्रयोग अब मुख्यमंत्री के ड्रीम प्रोजेक्ट नरवा, गरवा, घुरवा और बाड़ी के जरिए सेमी बायोफ्लॉक सिस्टम के नाम से पहुंचने जा रही है।

नीली क्रांति का फैलाव अपने आप में उनके लिए आजीविका का साधन बना जिनके पास मछली पालन के अलावा और कोई दूसरा रास्ता नहीं था। भरपूर प्रोटीन से उपलब्ध यह हर घर तक पहुंची जहां इसे स्वीकार्यता मिलनी चाहिए थी। बदलते समय और आहार में जरूरी पोषक तत्वों को लेकर आई जागरूकता के बाद मछली पालन एक बड़ा रोजगार बन गया और होने लगी भरपूर आय। रोजगार और आय के महत्वपूर्ण जरिए को अब प्रदेश सरकार के ड्रीम प्रोजेक्ट नरवा गरवा घुरवा और बाड़ी के जरिए बेहद छोटे स्वरूप में पहुंचाने की कोशिश पर काम होने लगा है। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर के कुलपति डॉ एस के पाटिल ने योजना का खाका फिशरीज साइंटिस्टों के सामने रखा और इस तरह योजना मुख्य वैज्ञानिक डॉ एस सामल को सौंप दी गई। अब यह लघु स्वरूप में तैयार है।

कम लागत- कम जगह में
बड़े पैमाने पर चालू किया गया बायोफ्लॉक तकनीक का यह बेहद छोटा सा रूप है। बड़े प्लान की तुलना में यह बेहद कम लागत और बेहद छोटी सी जगह में तैयार किया जा सकता है। इसलिए इसे सेमी बायोफ्लॉक सिस्टम नाम दिया गया है। घर की बाड़ी में इसे मात्र 120 फीट की जगह में तैयार किया जा सकता है। मानक गहराई में बनाये गये छोटे टैंक का रूप देने के लिए निकाली गई मिट्टी को चारों तरफ से घेर देना होता है और यह काम पूरा कर लेने के बाद इसमें इसकी लंबाई चौड़ाई के अनुरूप तारपोलिंन बिछाना है। अच्छी तरह जांच परख के बाद इसमें पानी भरना होगा। यह टैंक अपनी लागत क्षमता देखते हुए बनवाया जा सकता है। फिर भी योजना के मुताबिक इसमें दो श्रेणियां रखी गई है। जिसमें 5000 लीटर और 10000 लीटर क्षमता वाले टैंक बनाये जा सकेंगे। इस तरह टैंक के तैयार हो जाने के बाद इसमें मछलियों की ऐसी प्रजाति के मछली बीज डाले जाने हैं जो जल्द तैयार हो जाती हैं। इस सभी काम में मात्र 25 हजार रुपए व्यय का अनुमान है।

जल्द तैयार होने वाली यह प्रजातियां
मछलियों की अनेक तरह की प्रजातियों के बीच पनकास और तलापिया प्रजाति की मछलियों को इस तरह के टैंक के लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त माना गया है क्योंकि यह मात्र सात से आठ माह में तैयार हो जाती है। प्रोटीन से भरपूर यह प्रजाति आसानी से इस छोटे से टैंक में 1 साल में 2 क्विंटल का उत्पादन देने में सक्षम है। यानी इस तरह के सेमी बायोफ्लॉक सिस्टम अपनाने वाले किसान को घर पर प्रोटीन की बहुलता वाला आहार न केवल उपलब्ध होगा बल्कि इसका विक्रय कर आय का अतिरिक्त जरिया बना पाने में सक्षम होगा।

बाड़ी के रास्ते सेमी बायोफ्लॉक सिस्टम
केंद्र सरकार की नई बायोफ्लॉक की वृहद तकनीक के मुकाबले यह सेमी बायो फ्लॉक सिस्टम इतनी छोटी है कि यह राज्य शासन की ड्रीम प्रोजेक्ट नरवा गरवा घुरवा और बाड़ी के रास्ते हर घर की बाड़ी मैं पहुंचाई जा सकती है। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ एसके पाटिल के मार्गदर्शन में चालू किया गया यह प्रयास रंग लाने लगा है। कृषि विज्ञान केंद्र में इसकी प्रदर्शन खेती के लिए जितनी संख्या में पूछताछ हो रही है उसकी तुलना में स्वीकार्यता की संख्या में भी इजाफा हो रहा है। उम्मीद की जा रही है कि सेमी बायोफ्लॉक सिस्टम बहुत जल्द हर बाड़ी में नजर आने लगेगा।


“सेमी बायोफ्लॉक सिस्टम ऐसे मछली पालकों को ध्यान में रखते हुए तैयार किया गया है जिनकी आर्थिक क्षमता बेहद सीमित है और उनकी बाड़ी में जगह भी कम है। नया सिस्टम ऐसे लोगों के लिए आय का एक मजबूत जरिया बनेगा साथ ही घरेलू उपयोग के लिए प्रोटीन युक्त आहार की उपलब्धता भी सुनिश्चित की जा सकेगी।”

डॉ एस सामल, साइंटिस्ट( फिशरीज), कृषि विज्ञान केंद्र रायपुर

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