भाटापारा- हालात तेजी से बिगड़ते जा रहे हैं। अच्छे दिन की उम्मीद लिए चल रही पोहा मिलों का धैर्य अब जवाब देने लगा है। हर मुमकिन कोशिश के बाद भी सफलता नहीं मिलने की स्थिति में मिलों का संचालन अब भारी पड़ने लगा है। लिहाजा अब पूरे माह की बजाए 15 दिन ही मिलें चलाई जाने लगी हैं।
लॉक डाउन का पांचवा माह। पहले महाराष्ट्र हाथ से निकला। फिर गुजरात फिर कर्नाटक और आंध्र प्रदेश। एक-एक करके सभी उपभोक्ता राज्य छूटते गए। गिरते बाजार ने नए खरीददार की तलाश करने पर मजबूर किया लेकिन यह कोशिश भी परवान नहीं चढ़ पाई। कड़ी प्रतिस्पर्धा के बीच अपने प्रदेश को करारी मात मिली। अब घरेलू मांग पर ही टिका यह उद्योग उस दिन की राह देख रहा है जब स्थितियां पहले की तरह सामान्य होंगी।

संचालन और उत्पादन दोनों 50 प्रतिशत
कभी महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, उड़ीसा और बिहार जैसे बड़े राज्य थे जिनकी खरीदी के दम पर राज्य के पोहा हब कहे जाने वाले इस शहर की पोहा मिलें हर माह 30हजार टन पोहा का उत्पादन किया करती थी। मार्च के मध्य के बाद स्थितियां तेजी से तब बिगड़नी शुरू हुई जब कोरोना संक्रमण का फैलाव महाराष्ट्र में तेजी से विस्तार लेता दिखाई दिया। लॉकडाउन के फैसले ने एक ही झटके में सबसे बड़ा उपभोक्ता राज्य छीन लिया। देखते ही देखते एक-एक करके सभी उपभोक्ता राज्य हाथ से निकलते चले गए। अब हालत यह है कि मिलों का संचालन पूरे महीने की बजाय पखवाड़े पर आ गया है। याने 30 हजार टन प्रति माह का उत्पादन 15 हजार टन पर आ चुका है।

इधर कुआं- उधर खाई
नए उपभोक्ता राज्य की तलाश में सफलता मिली लेकिन कड़ी प्रतिस्पर्धा और कम कीमत पर उपलब्धता के बीच छत्तीसगढ़ हार गया। अब एक ही रास्ता था कि मिलें बंद कर दी जाएं। लेकिन यह फैसला इसलिए वर्तमान से भी ज्यादा नुकसानदेह था कि संचालन बंद करने के बाद वित्तीय संकट आगे और भी गंभीर रूप धारण कर सकता था। लिहाजा संचालन और उत्पादन में 1 से 4 दिन के अंतराल में करने का फैसला लिया गया। लेकिन आर्थिक संकट अब भी कायम है। ना केवल मजदूरी भुगतान भारी पड़ रहा है बल्कि बिजली बिल की रकम भी ज्यादा लगने लगी है।
अटका भुगतान -अटकी सांस
30 हजार टन प्रति माह उत्पादन वाली सवा सौ से उपर की संख्या वाली पोहा मिलों के सामने एक और बड़ा खतरा मंडरा रहा है। यह खतरा उपभोक्ता राज्यों द्वारा खरीदे गए माल के भुगतान के विलंब को लेकर सामने आ रहा है। लाखों नहीं भुगतान की यह राशि करोड़ों में बताई जा रही है। करोड़ों की रकम अटकने के बाद वह मिलो की सांसे भी अटकने लगी है। क्योंकि जिस तरह के जवाब मिल रहे हैं वह किसी अनिष्ट की ओर इशारा कर रहे हैं। इसलिए सरकार से गुहार लगाने का विचार है।
“कहीं से किसी किस्म की राहत नहीं मिल रही है। ना राज्य से ना केंद्र से। ऐसे में मिलों के संचालन के दिन कम करने और उत्पादन घटाने के सिवाय दूसरा कोई रास्ता नहीं है। फिर भी उम्मीद है कि अच्छे दिन जरूर आएंगे।”
कमलेश कुकरेजा
संरक्षक, पोहा मिल एसोसिएशन, भाटापारा